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चित्तौडगढ़ की सैर और इतिहास

 

चित्तौड़गढ़ की सैर                                                                                                                  

             हमारा आज का सफर है एक ऐसी जगह से है। जो अपनी आन बान और शान  के लिये प्रसिद्ध शूरवीरों की कर्मभूमि रहा है वहीं अपने सतीत्व की रक्षा के लिये जौहर करती वीरांगनाओं की भूमि था तो दुसरी ओर भक्ति रस से सराबोर मीराबाई भी यही की थी।    पन्नाधाय का त्याग और भामाशाह की देश के प्रति दानवीरता की भूमि  चित्तौड़गढ़  की।             

कीर्ति स्तंभ, चित्तौड़गढ़
कीर्ति स्तंभ, चित्तौड़गढ़ 

इतिहास 

चित्तौड़गढ़ को महाराणा प्रताप का गढ़ व जौहर गढ़ नाम से भी जाना जाता है।  यह सन 1568 तक मेवाड की राजधानी भी रहा है।                         

    
चित्तौड़गढ़ किला
चित्तौड़गढ़ किला

एक कथा के अनुसार पांडव पुत्र भीम संपति खोज के लिये निकले रास्ते में योगी निर्भयनाथ मिल गये ,भीम ने योगी से पारस पत्थर मांगा तो योगी ने शर्त  रखी ,एक ही रात में यदि तुम महल बना दो तो पारस पत्थर दे दुंगा।महल जब अंतिम  चरण में था तो योगी के मन में कपट आया और उसने यति से मुर्गे के रूप में बांग लगवा दी जिससे भीम को कार्य रोकना पडा।इस पर भीम को बहुत क्रोध आया फलस्वरूप अपना पैर जमीन पर जोर से मारा जिससे एक बडा गढ्ढा हो गया और पानी का स्त्रोत फुट पडा तब से इस स्थान को लत तालाब के नाम से जाना जाता है। वह   वह स्थान जहां  भीम के घुटने ने विश्राम किया, भीम-घोड़ी कहलाता है। और जहां मुर्गे ने बांग दी थी वह स्थान कुकडेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ।                                             
       7 वीं शताब्दी में चित्रागंद मौर्य ने इस किले का निर्माण कराया था।तब इसका नाम चित्रकूट  था। बहुत समय तक मौर्य वंश का शासन काल रहा।             

    एक और कथा के अनुसार 8वीं शताब्दी के मध्य बप्पा रावल ने सोलंकी राजकुमारी से विवाह करने पर इसे  दहेज स्वरूप प्राप्त किया और बहुत लंबे समय तक इनके वंशजों ने शासन किया। इनका शासन गुजरात से अजमेर तक रहा।                                           
     1303 में कुटिलता पूर्वक अलाउद्दीन खिलजी ने युद्ध कर यहां पर 13 वर्षो तक राज किया। इसी युद्ध के समय पहला जौहर रानी पद्मावती के साथ 16000 वीरांगनाओं ने किया।  एक बार पुनः राणा वंश के   सिसौदियाओं का शासन स्थापित हुआ।                   
   
         सन 1325 में राणा हमीर ने अपना किला बनाया। यहां कई प्रतापी राजा हुऐ जिन्में राजा रतन सिंह,महाराणा सांगा, महाराणा कुंभा और महाराणा प्रताप प्रमुख है।                                         
           

चित्तौड़गढ़ किला
चित्तौड़गढ़ किला
   
        चित्तौड़गढ़ किला  ~                                                                                                                                               


  समुद्र तल से 1339 फिट की ऊंचाई पर स्थित यह किला एक बहुत बडी मछली के आकार लिये हुऐ है। इसकी लंबाई लगभग 13 किमी चौड़ाई 1.80 किमी, 692 एकड़ में फैला है।  यहां 6 महल,84 जल स्तोत्र ,7  प्रवेश द्वार ,5 हवेलियां ,4 स्मृति चिन्ह ,3 बगीचे ,1 तोपखाना और 19 मंदिर है।                             
                                 
चित्तौडगढ़ की सैर और इतिहास



     तोपखाना     **                  
           
 यहां पर सारी तोपे रखी हुई है। ये भारी भरकम तोपों का संचालन उस समय कैसे होता था। भीति चित्रों द्वारा बताया गया है।                         

पास ही टिकीट खिडकी से टिकीट प्राप्त कर हमने गाईड की सहायता लेना उचित समझा।         
 
सबसे पहले आपको नीचे से जहां प्रथम प्रवेश द्वार है, ले चलते है किले में उपर जाने के लिये सात प्रवेश द्वार बने है । और ये ऐसे बने है कि उपर से सभी पर नजर रखी जा सकती है। तो आईये चलते है किले में।     

      पाडन पोल ~                                       

                 प्रथम प्रवेश द्वार ,इस द्वार के बारे में  कहा जाता है कि एक बार बहुत भीषण युद्ध हुआ जिससे खुन की नदियां बह निकली। इस बहाव के साथ एक पांडा बह कर यहां आ गया था तब से इसे पाडन पोल नाम से जाना जाता है।                                     
        किले के प्रथम प्रवेश द्वार के बाहर चबूतरे पर रावत बाधसिंह का स्मारक बना है।  1535 में सुलतान बहादूरशाह ने किले पर आक्रमण कर दिया। तब रानी कर्मवती ने विक्रमादित्य और पुत्र उदयसिंह को बूंदी भेज दिया तथा किले की रक्षा का दायित्व मेवाड के सरदारों को सौंप दिया। प्रतापगढ़ के  रावत बांधसिंह ने मेवाड की राज पोशाक पहन के युद्ध किया और इसी द्वार के पास वीरगति को प्राप्त हुऐ।  तब से उनके सम्मान में यह स्मारक बनाया गया था।                   

भैरों पोल   ~                                              


  पाडन पोल से उत्तर दिशा में दुसरा द्वार ,देसूरी के वीरगती प्राप्त भैरोंदास सोलंकी के नाम पर भैरों पोल रखा गया।                                                   
 भैरों पोल के पास ही दो छतरियां बनी हुई है।छः स्तंभों वाली राठौड़ जैमल के नाम की तथा दुसरी छतरी चार स्तंभों वाली  इनके परिवार के सदस्य कल्ला की है। कहा जाता है कि जब अकबर से युद्ध हुआ था। तो महाराणा उदयसिंह की अनुपस्थिति में दुर्ग के रक्षक के रूप में जैमल जी को नियुक्त किया। एक रात दुर्ग की टुटी दीवार की मरम्मत करवाते समय अकबर की एक गोली उनके पैर में लग गई जिससे वे लंगड़ाने लगे किन्तु दुसरे दिन युद्ध था और धोड़े पर चढने में असमर्थ देख उनके साथी कल्ला ने अपने कंधो पर बिठाकर युद्ध किया और वीर गति पाई।                   
                                             

हनुमान पोल  ~                                      

      यह तीसरा प्रवेश द्वार है। इसके पास हनुमान जी का मंदिर है।                                                 

गणेश पोल    ~                                      

      हनुमान पोल से दक्षिण की तरफ मुडने पर चौथा द्वार है।इसके पास ही गणेश मंदिर है अतः इसे गणेश पोल नाम दिया गया।                                       

जोडला पोल ~                                          

      पांचवां और छठा द्वार पास पास होने से इसे जोडला पोल कहते है।                                                                 
लक्ष्मण पोल   ~                                   
       यह छठा द्वार है इसके पास में लक्ष्मण जी का मंदिर बना है।               

        राम पोल ~                                                

                     ़़़      यह सातवां और अंतिम द्वार है पश्चिम मुखी इस द्वार से किले में प्रवेश  करने पर महाराणाओं के पूर्वज सूर्यवंशी भगवान रामचंद्र जी का मंदिर है  मंदिर से थोडा आगे जाकर प्रवेश करने पर उत्तर में बसावट और दक्षिण में पर्यटन स्थल हैं।                                                   

पत्ता स्मारक ~                                     

राम पोल से प्रवेश करने पर सामने एक स्मारक पत्थर है।इस चबुतरे पर लगा स्मारक आमेर के रावतों के पूर्वज पत्ता जो अकबर से युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुऐ थै। यहां पर एक पागल हाथी ने पत्ता को सूंड से पकड़कर जमीन पर जोर से पटक दिया था। 

किले के टिकीट घर से टिकीट लेने के बाद सबसे पहले तोपखाना और उसके बाद पुरातत्व संग्रहालय जहां पर किले से संबंधित वस्तुओं का संग्रह है।                 

श्रृंगार चंवरी ~        

 महाराणा कुंभा ने अपनी पुत्री के संस्कार के लिये बनवाया था।                                             

कुकडेश्वर कुंड ~   

रामपोल से उतर वाली सडक पर दाहिनी ओर कुकडेश्वर का कुंड और मंदिर है।इस कुंड की कहानी पांडव काल से है। जब योगी के मन में कपट आ गया था, तो भीम से छल करने के लिये यती से मुर्गे की बांग यही से दिलवाई थी।  क्रोध में भीम के पैर के प्रहार से कुंड बन गया था। पास  ही मंदिर बना हुआ है जिसमें शिवलिंग स्थापित है।                                       

रावल रतन सिंह महल        

कुकडेश्वर मंदिर से आगे चलने पर दाहिनी ओर की तरफ ये महल है रावल रतन सिंह जी मेवाड के शूरवीरों में से एक थे।इनकी पत्नि रानी पद्मिनी बेहद खुबसुरत थी।  रावल रतन सिंह ने अपने महल के पास एक तालाब भी बनवाया था। जिसका नाम रत्नेश्वर तालाब पडा।                                                         

लाखोटा की बारी                                               

     रत्नेश्वर कुंड से आगे पहाड़ी के पूर्वी किनारे पर एक छोटा सा दरवाजा है।इसे लाखोटा की बारी नाम से जानते है। अकबर से युद्ध के समय जैमल को यहीं पर पैर में गोली लगी थी जब वे क्षतिग्रस्त दीवार को ठीक करा रहे थे।                                               

  जैन कीर्ति स्तंभ                                                                                                            

   लखोटा बारी से सीधी सड़क के दक्षिण में स्थित 75 फिट ऊंची सात मंजिला इमारत को 14 वीं शताब्दी में दिगम्बर जैन संप्रदाय के बधेरवाल महाजन सानांय के पुत्र जीजा ने बनवाया था। यह स्तंभ नीचे से 30 फिट और उपर से 15 फिट चौड़ा है।इसमें भगवान आदिनाथ की 5  फिट ऊंची मुर्ति खडी अवस्था में है। उपर की मंजिल पर बिजली गिरने से क्षतिग्रस्त हो गई थी। जिसे महाराणा फतह सिंह ने मरम्मत करवाई थी।         

महावीर मंदिर             

  जैन कीर्ति स्तंभ के पास में महावीर स्वामी का मंदिर है।इसका निर्माण महाराणा कुंभा के शासन काल में ओसवाल महाजन गुणराज ने करवाया था। किन्तु मंदिर में कोई मुर्ति  नहीं है।                                               

नीलकंठ महादेव मंदिर

महावीर स्वामी मंदिर से आगे चलने पर नीलकंठ महादेव जी के दर्शन हो जाते है।यह शिवालय है ।                                                                                                                                              


नीलकंठ महादेव, चित्तौड़गढ़
नीलकंठ महादेव, चित्तौड़गढ़ 

सूरजपोल 

ये किले का पूर्वी दरवाजा है।यहां से दुर्ग  के मैदान में जाने का रास्ता है। पास ही अकबर से युद्ध में वीर गति पाये रावत सांईदास का चबूतरा और स्मारक है।

रानी पद्मावती के महल

सुरज कुंड के दक्षिण में तालाब के किनारे रानी पद्मावती का महल बना है।ये बहुत ही खुबसुरत महल है इस महल के पास बने तालाब के मध्य एक छोटा महल भी बना है। कहा जाता है कि इसी तालाब के जल में रानी पद्मावती का अक्ष देखा था अलाउद्दीन खिलजी ने।                                                  

रानी पद्मावती, चित्तौड़गढ़
रानी पद्मावती, चित्तौड़गढ़ 

कालिका माता मंदिर

यह जैमल और पत्ता के महलों के दक्षिण में ऊंचे स्थान पर बना है। पुरातत्वविदों के अनुसार संभवतः पहले ये सूर्य मंदिर रहा होगा किन्तु मुगलों ने इसे क्षतिग्रस्त कर दिया था। बाद में महाराणा सज्जन सिंह ने जीर्णोद्धार करके यहां पर कालिका की मुर्ति स्थापित करवाई।

कुंभा महल  

यह महल बहुत प्राचीन भव्य कलाकृति और राजपुताना शैली का बना है। इसमें दीवाने आम, जनाना खाना, कंवर प्रदा के महल व शिव मंदिर आदि है। किन्तु आज अधिकाश जगह भग्नावशेष रूप में है।  महल में

 दक्षिण की ओर कंवर प्रदा के महल है जहां राणा उदय सिंह का जन्म हुआ था। और यहीं पर पन्नाधाय ने अपने बालक चंदन का बलिदान देकर उदयसिंह की रक्षा की थी।                                                 

मीरा मंदिर, चित्तौड़गढ़
मीरा मंदिर, चित्तौड़गढ़ 

मीरा बाई की कृष्ण भक्ति और  विक्रमादित्य के द्वारा विष देना भी इन्ही महलों मे हुआ था।                   

मीरा मंदिर, चित्तौड़गढ़
मीरा मंदिर, चित्तौड़गढ़

महाराणा कुंभा ने मालवा के सुलतान मेहमूद खिलजी और गुजरात के सुलतान कुतुबुद्दीन की संयुक्त सेना पर विजय पाने के बाद इस स्तंभ का निर्माण कराया था। 10 फिट ऊंचे आधार पर 47फिट की वर्गाकार यह इमारत 122 फिट ऊंचाई के साथ 9 मंजिल की है। इसकी बनावट आधार पर 30 फिट चौड़ी और ऊपर 15 फिट की चौड़ाई है। इसमें 157सीढियां के सहारे ऊपर तक जा सकते है। स्तंभ में देवी देवताओं के मुर्तियां उकेरी गई है।                                        

जौहर कुंड

   स्तभं से आगे और समीधेश्वर मंदिर के मध्य  जौहर कुंड बना था। यह 45 फिट गहरा था। कहा जाता है कि जब राजा युद्ध में जाते थे और  पराजय की स्थिती में  क्षत्राणियां अग्नि कुंड में प्रवेश कर अपने सतीत्व की रक्षा करती थी। यहां पर तीन बार ऐसी स्थिती आई।

समीधेश्वर मंदिर 

यहां पर शिवलिंग स्थापित है यह जौहर कुंड से थोडा ही आगे है।         
                                   

गौमूख कुंड 

        यहां पर गौ मुख से लगातार चट्टानों से रिसाव होने वाला जल शिव लिंग पर गिरता रहता है  गौ मुख से आगे जाने पर दो जलाशय है पश्चिम तरफ के कुंड में हाथियों के लिये पानी पीने की व्यवस्था थी। पूर्व में खातन बावड़ी है।                                       

 सतबीरा देवरी 

     फतह प्रकाश महल के पास 11शताब्दी में निर्मित यह देवरी जैन सम्प्रदाय की है।यहां पर 27 देवरीेेयां बनी हुई है । बहुत ही आकर्षक और कलात्मक निर्माण है ।                                     

जैमल पत्ता के महल

     गौ मुख के दक्षिण की ओर चट्टानों के बीच वीर जैमल और फत्ता जी के महल है पूर्व मे एक तालाब हैै। जिसे जैमल फत्ता का तालाब के नाम से जानते है। 
             

मृगवन 

     जैन कीर्ति स्तंभ के आगे मृगवन है। यह स्थान हिरणों और अन्य पशु और पक्षी के लिये बनवाया गया है।                                                              

अद्धद् जी का मंदिर            

  रावत साईंदास स्मारक से दक्षिण की तरफ दाहिने ओर स्थित यह मंदिर सन 1314 में महाराणा रायमल ने बनवाया था। इस मंदिर की कला बहुत खुबसुरत है। इसमें एक शिवलिगं और उसके पीछे दिवाल पर  शिव की विशाल त्रिमुर्ति है बनी है। देखने में बहुत अद्भुत लगती है। इसलिये इस मंदिर को अद्धद् जी का मंदिर कहते है।                                                                 

फतह प्रकाश महल / संग्रहालय 

यह राणा फतह प्रकाश जी का महल था, जिसे सरकार ने संग्रहालय में तब्दील कर दिया।यहां पर राजाओं की पोशाक, हथियार व अन्य कई तरह की वस्तुओं का संग्रह किया हुआ है।

राज टीला और चत्रंग तालाब

अद्धद् जी के मंदिर के आगे एक ऊंचा सा टीलानुमा स्थान है।मौर्यवंशी शासन काल में यहां पर राज्याभिषेक किया जाता था।                                   
सडक के पश्चिमी सिरे पर चित्रागंदा मौर्य का बनाया हुआ तालाब है।                                  

चित्तौडी         

    चत्रंग तालाब से थोडी दुरी पर चित्तौड की पहाड़ी समाप्त हो जाती है। यहां से थोडी दूरी पर एक अन्य छोटी सी पहाड़ी है जिसे चित्तौडी कहते है।   
                        

मोहर मगरी

दुर्ग के अंतिम दक्षिणी बुर्ज से 150 फिट नीचे एक पहाड़ीनुमा टीला है। सन 1567 में अकबर ने चित्तौड पर चढाई कर दी। तब किले पर आक्रमण के लिये ये टीला उपयुक्त मानकर उस पर मिट्टी डलवाई गयी जिससे उसकी ऊंचाई बढ जाये और युद्ध के लिये आसानी रहे। मिट्टी डालने के लिये तब प्रत्येक टोकरी मिट्टी के लिये एक एक मोहर दी गई थी। तभी से इसका नाम मोहर मगरी पड गया।                                 


चित्तौड़गढ़ किला
चित्तौड़गढ़


   चित्तौड़ का इतिहास बहुत सारी वीर गाथाओं से भरा पडा है। यहां पर एक ओर शूरवीर हुऐ तो दुसरी ओर  क्षत्राणियां भी कम न थी उन्होनें वीरों को अपनी     कमजोरी नहीं बनने दिया। हंसते हंसते जौहर कर   अपने सतीत्व की रक्षा की।  ऐसे ही तीन प्रमुख जौहर हुऐ।                                                            

प्रथम जौहर

रानी पद्मावती सिंहल के राजा गंधर्वसेन और चंपावती की पुत्री थी। बेहद खुबसुरत राजकुमारी का  स्वयंवर    चित्तौड़ के राजा रावल रतन सिंह से हुआ। राजा कला और संगीत के शौकीन थे। उनके दरबार में एक संगीतकार राधव चेतन था। जो कि संगीत में निपुर्ण होने के साथ वो जादूगर भी था। एक दिन राजा रावल रतन सिंह को चेतन के काला जादू करने की बात पता चली तो उन्होने उसे उसी समय अपने राज्य से निकाल दिया। संगीतकार चेतन को यह अपमान जनक लगा और उसने इस अपमान का बदला लेने के लिये दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी़ से मिलकर चित्तौड को नेस्तनाबूद करने का षडयंत्र रचा। वो सुलतान के बारे में पता करके जंगल में जहां सुलतान शिकार के लिये गया था। एक जगह बैठकर बांसुरी बजाने लगा जब सुलतान को उसकी बांसुरी की मधुर धुन सुनाई दी तो सुलतान ने उसे पास बुलवाया और अपने साथ दिल्ली ले गया। जहां पर राधव चेतन ने रानी पद्मावती के सौंदर्य का विस्तृत वर्णन किया। सुलतान रानी को पाने के लिये बैचेन हो गया और चित्तौड की तरफ भारी सैना लेकर चल दिया। राजा रावल रतन सिंह को शत्रु की थाह लगते ही किले को सुरक्षित करने के लिये बंद करना पडा। सुलतान की सेना ने महिनों दुर्ग की धेरा बंदी कर दी। सुलतान ने कुटनीती के जरिये संदेश भेजा कि एक बार रानी को देख लेने के बाद वापस चले जायेगें। राजा के पास सिमीत विकल्प के चलते मानने के अलावा कोई चारा नहीं था। तब इस तरह की व्यवस्था की जिससे रानी का प्रतिबिंब तालाब के जल में दिखाई दें। रानी का प्रतिबिंब देख सुलतान की नियत में खोट आ गई  और उसने रावल रतन सिंह को, जब वो उसे दुर्ग के अंतिम द्वार तक छोड़ने गये बंदी बना लिया और संदेश भेजा की यदि रानी समर्पण कर दे तो राजा को छोड़ देगें । दुर्ग में मंत्रणा हुई और संदेश भेजा की रानी दासीयों के साथ आयेगीं।  सुलतान की सहमति के बाद सोलह सौ पालकी तैयार की गई । पालकी में गौरा और बादल भी गये। जब पालकी सुलतान के खेमें में पहुंची तो एक शर्त रखी की पहले रानी एकांत में अपनी दासीयों के साथ राजा से मिलेगी। जैसे ही व्यवस्था हुई पालकी में छुपे वीर सैनिकों ने धावा बोलकर राजा को छुड़ा लिया। इस सब में गौरा और बादल वीरगति को प्राप्त हुऐ।

इससे सुलतान तमतमा गया और पुनः दुर्ग धेर लिया। लंबे समय की धेराबंदी से दुर्ग की रसद खत्म होते देख राजा ने केसरिया करने का संकल्प लिया यानि अंतिम समय तक युद्ध और किले में  रानी और क्षत्राणियों ने जौहर की तैयारी कर ली। रात में रानी पद्मावती ने 16000 वीरांगनाओं के साथ जौहर किया ( यानि जीवित अग्नि कुंड में प्रवेश) और सुबह राजपुत वीरों ने सफेद कुर्ता और पायजामा पहन कमर पर नारियल बांध शत्रु पर टुट से पड़े किन्तु शत्रु की विशाल सेना के आगे सब वीरगति को पा गये। युद्ध के बाद सुलतान को किले में केवल राख ही हाथ लगी। जय हो शूरवीरों और वीरांगनाओं की।                                             


चित्तौड़गढ़ किला
चित्तौड़गढ़ किला 

दुुसरा जौहर            

राणा रतन सिंह के बाद उनका भाई विक्रमादित्य चित्तौड़ का राजा बना। किन्तु अपने कुल की परंपरा  के विपरीत यह डरपोक और भोग विलाशी व्यक्ति था। हमेशा भोग विलासिता में रहने के कारण बहुत से सरदार भी नाखुश रहने लगे। राजा की कमजोरी का जब मुगलों को पता चला तो गुजरात के पठान बहादुर शाह ने चित्तौड पर हमला कर दिया। युद्ध का खतरा देख भी विक्रमादित्य कुछ नहीं करने के कारण राजमाता कर्मवती ने  सभी सरदारों को इक्कठा कर इस समस्या पर विचार किया। सभी एक मत हो युद्ध को तैयार हुऐ।यह देख विक्रमादित्य भी युद्ध में गया। किन्तु मुगलों की तोपों से किले की दीवारें हिलने लगी दुश्मन के बढते प्रभाव को  देख विक्रमादित्य भाग खडा हुआ। तब विक्रमादित्य की पत्नि जवाहर बाई सामने आई वो वीर क्षत्राणी के साथ युद्ध कौशल में निपुर्ण थी। जवाहर बाई ने कहा अंतिम सांस तक लड़ेंगें यूंही नहीं  हार मानने वाले ।जवाहर बाई ने वीरों और वीरांगनाओं के साथ केसरिया बाना पहन युद्ध किया। जवाहर बाई की योजना दुश्मन के तोपखाने को शांत करने की थी मगर सफल न हो सकी हां दुश्मन को भारी क्षति पहुंचाते हुऐ सभी वीर गति को प्राप्त हुऐ । इधर किले में राजमाता कर्मवती नें 13000 वीरांगनाओं  के साथ 8 मार्च 1935   को जौहर कर लिया। यह चित्तौड का दुसरा जौहर था।                                            
                                

तीसरा जौहर

23 फरवरी 1568 को फतेहसिंह  की पत्नि फूंलकुंवर के साथ सैकडों वीरांगनाओं ने जौहर किया था।       इतिहासकारों के अनुसार चित्तौड सदा से ही मुगलों की  पसंद रहा है। 1567 में दिल्ली के बादशाह अकबर  ने चित्तौड पर चढाई कर दी, तब तत्कालीन राणा उदयसिंह को ठाकुरों और राजपुत सरदारों ने  सलाह कर कुंभलगढ़ मय राजपरिवार के साथ भेज दिया और चित्तौड की जिम्मेदारी जैमल मेडतिया और फतेहसिंह चुंडावत को सौप दी।  दुर्ग अभेध्य होने से अकबर सीधे हमला नहीं कर पा रहा था। अकबर की  सेना दिन में दुर्ग की दीवारों को क्षतिग्रस्त कर देती  तो रात में वीर राजपुत मरम्मत कर देते। एक दिन दीवार की मरम्मत के वक्त एक गोली जैमल के पैर  में लग गई जिससे वो धायल हो गये।तब किले में हलचल के बीच तय किया कि जौहर सम्पन्न होने के बाद युद्ध के लिये कुच करेगें। रात में जौहर की अग्नि में जय भवानी के उदधोष के साथ वीरांगनाओं ने प्रवेश किया।सुबह सभी शूरवीरों ने सफेद वस्त्र धारण कर कमर में नारियल बांध जौहर की राख का तिलक लगा रण के लिये चल दिये। वीर जैमल मेडतिया के पैर में लगी होने से धोड़े पर चढने में असमर्थ थे। तब वीर कल्ला जी ने अपने कंधो पर बैठा कर  मुगलों पर टुट पड़े। 8000 राजपुत शूरवीरों ने 40000 मुगलों को मौत के घाट उतार दिया किन्तु दुश्मन की तोप और बहुत बडी सेना के कारण    सब वीर गति को प्राप्त हुऐ। युद्ध समाप्ति के बाद   अकबर को किले में कुछ नहीं मिला तो नर संहार करा दिया । आप ऐतिहासिक और खुबसूरत जगहों पर जाना पसंद करते हों तो एक और विख्यात स्थल मांडू (मांडव) खुबसूरत वादियों में बसा ऐसा स्थान हैं जो अपने में बहुत बड़ा इतिहास समेटें हुऐं है।                  

रेलमार्ग          जयपुर , उदयपुर और रतलाम  से रेलमार्ग संम्पर्क                                                       

सड़क मार्ग     इंदौर अजमेर हाईवे पर                                                                                                                   जयपुर , उदयपुर ,अजमेर और इंदौर से बस सेवा उपलब्ध                                                
             
वायुमार्ग      निकटतम एयरपोर्ट जयपुर और उदयपुर                                                                      

जय श्रीकृष्ण  






 

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